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…और हम भ्रष्टाचार के लिए भी आजाद हो गए!

किशोर कुमार का ब्लाग
किशोर कुमार का ब्लाग
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राजनीति औऱ भ्रष्टाचार का अन्योन्याश्रय संबंध है। सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग भ्रष्टाचार को अंजाम देते हैं। विपक्षी दल उस भ्रष्टाचार को हवा देते हैं। जांच होती है। मामला थोड़े दिनों तक गर्म रहता है। अचानक पता चलता है कि भ्रष्टाचारी पहले से ज्यादा ताकतवर होकर राजनीति में जम चुके हैं। इस तरह भ्रष्टाचार की जड़ें दिनोदिन गहरी होती जा रही है।
हद तो यह है कि जो लोग भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहते हैं, वे खुद भी किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार में लिप्त होते हैं। चाहे वह टैक्स चोरी का मामला हो या सरकारी दफ्तरों में काम चोरी का। समाज में अनेक “ईमानदार” लोग मिलते हैं जिन्हें दफ्तर गए बिना हाजिरी बनाने, अपने दफ्तर के संसाधनों का इस्तेमाल निजी काम के लिए करने औऱ दफ्तर जाकर भी दफ्तर के कामकाज का निबटारा करने के बजाए निजी एजेंडे को अंजाम देने में कोई गुरेज नहीं होता। पैरवी के आधार पर काम करना और खुद भी अपनों के लिए पैरवी करना उन्हें भ्रष्ट आचरण नहीं लगता। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार समाज में धीमे जहर की तरह घुल-मिल गया है।
देश की आजादी के बाद वर्षों कांग्रेस के हाथों में सत्ता की बागडोर रही औऱ उसी दौरान निजी हितों के लिए सत्ता के दुरूपयोग के मामले प्रकाश में आने लगे थे। पॉलिटिक्स ऑफ करप्शन नामक पुस्तक में शशि बी सहाय ने आजादी के शुरूआती दिनों के मशहूर पत्रकार फ्रैंक मोरेस के हवाले से लिखा है – आजादी से पहले कांग्रेस की सेवा का मतलब देश सेवा समझा जाता था। लेकिन आज के औसत कांग्रेस के बारे में आम धारणा बनती जा रही है कि उसकी नजर सेवा की बजाय आत्म-सेवा पर रहती है और जिस तरह से मंत्री, राजदूत या ऐसे ही आकर्षक पदों के लिए होड़ लगी हुई है, उससे बहुत से कांग्रेसी लोगों की नजर में गिर गए हैं।
भारत में अमेरिका के राजदूत रहे चेस्टर बावेल्स ने लिखा था, मैं जब 1955 में दूसरी बार भारत आया था तो 1951-53 की अपेक्षा भ्रष्टाचार ज्यादा फैल चुका था। राज्यों के कई मंत्रियों के भ्रष्ट आचरण लोगों की जुबान पर थे।
राजनीतिक भ्रष्टाचार जवाहरलाल नेहरू के काल में ही शुरू हो गया था। जीप घोटाला आजाद भारत में हुआ संभवत: पहला घोटाला था। 1948 में हुआ यह घोटाला काफी सुर्खियों में रहा। प्रतिरक्षा मंत्री वीके कृष्णमेनन इस घोटाले के लिए दोषी पाए गए थे। पर नेहरूजी की इच्छानुसार इस मामले को बंद कर दिया गया था।
जब जीप का सौदा हुआ था, उस समय श्री कृष्णमेनन भारत के ब्रिटेन में राजदूत हुआ करते थे। उनकी पहल पर ही इस सौदे को अंतिम रूप दिया गया था।
एजी नूरानी की पुस्तक “मिनिस्टर्स मिस्कंडक्ट” के मुताबिक रक्षा सेवाओं के वित्तीय सलाहकार एके चंदा को लगभग चार हजार जीप खरीदने का दायित्व सौंपा गया था। पर श्री कृष्णमेनन ने इस मामले में अतिरिक्त दिलचस्पी दिखाई औऱ एंटी मिस्टाटेस नामक एक ब्रिटिश कंपनी को तीन सौ पाउंड प्रति जीप के हिसाब से 2000 जीपों का आर्डर दे दिया, जबकि इस कंपनी की कुल पूंजी 605 पाउंड भी नहीं थी।
लगभग 60 फीसदी रकम अग्रिम लेने के बावजूद कंपनी ने तय समय से नौ महीने बाद केवल 155 जीपों की आपूर्ति की। मद्रास बंदरगार पर पहुंची इन जीपों की हालत ऐसी थी कि उन्हें किसी काम में नहीं लाया जा सकता था। हंगामे के बाद जांच हुई तो इस कंपनी का कहीं अता-पता नहीं चला था। इसके बाद तो फिर से जीप खरीदने, राइफलें खरीदने और स्टील खरीदने के मामलों में भारी अनियमितताएं बरती गईं औऱ सबके साथ कृष्णमेनन के नाम जुड़ते गए थे।
अहम बात यह रही कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जीप खरीदने संबंधी सौदे को हरी झंडी दी थी। नेहरू जी के लचीले रूख से भ्रष्टाचार की जड़ें मजबूत होती गईं और आज हम उसका खामियाजा भुगत रहे हैं।

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