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किशोर कुमार
देश मे कुल उत्पादित बिजली की 67 फीसदी कोयले से उत्पादित होती है। भविष्य में कोयले पर निर्भरता बढ़ने के संकेत हैं। कोयला खानों के आवंटन में सरकार की उदारता को देखते हुए यह मुमकिन है कि एक समय वह तय कर लेगी कि बिजली कंपनियों को इतनी कोयला खानें दे दी जाए कि उन्हें अपनी जरूरतों के लिए किसी पर निर्भर न रहना पड़े। तब जनता चिल्लाती रहेगी कि सरकार ने कोयला खानों के राष्ट्रीयकरण के एक पवित्र उद्देश्य पर पानी फेर दिया। वोट होगा, जनता विपक्ष को गद्दी पर बिठाएगी। पर सत्तासीन हो चुके पूर्व विपक्षी भी सरकार की भाषा बोलने लगेंगे।…वे दूसरे उद्योगों के लिए जल, जमीन और जंगल के इंतजाम में लग जाएँगे। जनता को भी समझना चाहिए कि सरकार में होना विपक्ष में होने जैसा नहीं होता है।
यह सच है कि देश का कोयला उद्योग निजीकरण के रास्ते है। कोयला ब्लाकों के आवंटन मे घपले को लेकर सीएजी की रिपोर्ट से शुरू गहमागहमी के बीच इस विषय पर आम लोगों की नजर नहीं है और जो खास हैं, वे इस तरफ नजर जाने नहीं देना चाहते हैं। इसलिए कि उनका निहितार्थ है। कोयला उद्योग को निजी हाथों में सौंपने के मामले में आखिर इतने दिनों की मेहनत रंग लाती जो दिख रही है। सीएजी की रिपोर्ट की आड़ में देश की जनता के दिलो-दिमाग में बस केवल एक बात बैठा दी गई कि कोयला खानों का आवंटन बोली के आधार पर होना चाहिए था। नहीं हुआ, गलत हुआ। यानी कि बोली के आधार पर कोयला खानों का आवंटन होता रहे तो कोई दिक्कत नहीं है। चूंकि बिजली उत्पादन का जो सवाल है।
भारत सरकार के आंकड़े गवाह हैं कि 67 फीसदी बिजली का उत्पादन कोयले से होता है। कैप्टिव उपयोग के लिए कोयला खानों के आवंटन के मामले में पक्ष औऱ विपक्ष की जो नीति है, उससे साफ है कि बिजली उत्पादक कंपनियों को उनकी जरूरत लायक कोयला खानों का आवंटन किया जा सकता है। मतलब कोयले की मांग और पूर्ति के मामले में सार्वजनिक क्षेत्र की कोयला कंपनियों की भूमिका कम से कम। दूसरे शब्दों में कोयला उद्योग का निजीकरण।
मैंने कोई 25 वर्षों तक धनबाद कोयलांचल में रहकर पत्रकारिता की औऱ औद्योगिक क्षेत्र में होने के कारण कोयला, उर्वरक, इस्पात आदि मेरे प्रमुख विषय रहे। मैंने महसूस किया कि प्रभावशाली लोगों ने किस तरह सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उद्योग को पंगु बनाकर स्थापित कर दिया कि देश में कोयला की जरूरतें कोल इंडिया की अनुषंगी इकाइयों के भरोसे संभव नहीं हैं। साजिशों का ही नतीजा है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोयला कंपनियों से अपेक्षित परिणाम मिलने बंद हो गए और विदेशी कोयले पर निर्भरता मजबूरी बनती गई।
बाद में “राष्ट्र भक्तो” ने कोयले के मामले में विदेशी निर्भरता कम करने की आड़ में कैप्टिव उपयोग के लिए कोयला खानें देशी उद्योगों को देने की नीति बनाई गई। …और धीरे से इस नीति को और लचीला बनाकर तथा अनेक मामलों में इस नीति की भी अनदेखी करके चहेती कंपनियों को उपकृत कर दिया गया।
मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं कि इतने गंभीर विषय पर संसद में चर्चा तक नहीं होने दी गई। आखिर बात निकलती तो दूर तलक जाती। सबके निहितार्थ हैं। ऐसे में इस चर्चे में पड़ना भला कोई क्यों चाहेगा। मीडिया से छन-छनकर बातें सामने नहीं आतीं तो अनेक लोगों को प्रमुख राजनीतिक दलों का खेल समझ में ही नहीं आया होता।
आज आलम यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोयला कंपनियों में भी निजी कंपनियों का जलवा है। कोयला उत्पादन से लेकर अनेक कामों को आऊटसोर्स किया जा चुका है। कुल मिलकर सरकार के नियंत्रण वाला कोयला उद्योग तेजी से निजीकरण के रास्ते चल पड़ा है।
मुझे लगता है कि कोयला खानों के आवंटन के मामले में हुए घोटाले के साथ ही बहस के केंद्र में कोयला उद्योग के निजीकरण के सवाल को भी रखा जाना चाहिए। यह देशहित में है।
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